राधा शहर के प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ने वाली एक अमीर परिवार की छात्रा थी। उसका जीवन सुविधाओं से भरपूर था—कार, नौकर, और चमकते सपने। लेकिन उसकी आँखों को सुकून नहीं था। उसे हमेशा लगता था कि वह किसी ऐसे की तलाश में है जो उसे उसकी पहचान से नहीं, उसके दिल से चाहे।
कॉलेज के पास ही एक पार्क था जहाँ मोहन रोज़ शाम को बैठा किताबें बेचता था। उसकी उम्र लगभग राधा जितनी ही थी, पर उसका जीवन बहुत कठिनाइयों से भरा था। वह पढ़ना चाहता था, पर हालात ने उसे स्कूल से बाहर निकाल दिया था। लेकिन किताबों से उसका प्यार कभी खत्म नहीं हुआ।
राधा अक्सर उस पेड़ की छांव में बैठती जहाँ मोहन अपनी दुकान लगाता था। वह किताबें खरीदने के बहाने उससे बातें करने लगी। मोहन की साफ दिल और समझदार बातें राधा को छूने लगीं। वह किताबों के जरिए एक-दूसरे के दिल को पढ़ने लगे।
एक दिन राधा ने मोहन से पूछा, “अगर मैं तुम्हारे जैसी होती, तो क्या तुम मुझसे दोस्ती करते?”
मोहन मुस्कुराया और बोला, “अगर तुम्हारा दिल आज जैसा होता, तो मैं तुम्हें हर हाल में अपना सबसे क़रीबी मानता।”
धीरे-धीरे, दोनों एक-दूसरे के लिए जरूरी बन गए। लेकिन राधा के परिवार को यह रिश्ता अस्वीकार्य था। उन्हें यह मंज़ूर नहीं था कि उनकी बेटी एक सड़क किनारे किताब बेचने वाले से प्रेम करे।
राधा ने साहस दिखाया—उसने अपना जीवन अपने तरीके से जीने का निर्णय लिया। उसने अपने खर्च से मोहन को आगे की पढ़ाई करवाई। मोहन ने भी उसकी उम्मीदों को सच साबित किया और एक सामाजिक कार्यकर्ता बन गया, जो गरीब बच्चों के लिए शिक्षा की अलख जगाता है।
अब राधा और मोहन मिलकर एक संस्था चलाते हैं—“छांव,” जो उन बच्चों को पढ़ने का अवसर देती है जिनके पास न तो छत होती है, न किताबें।
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कहानी का अगला भाग: "छांव एक पेड़ की – पुनर्मिलन और परिवर्तन"
अब राधा और मोहन की संस्था “छांव” पूरे जिले में प्रसिद्ध हो चुकी थी। गाँव-गाँव में छोटे पुस्तकालय, पढ़ने के कमरे और मोबाइल स्कूल की गाड़ियाँ चलाई जाती थीं। मोहन के चेहरे पर अब आत्मविश्वास की चमक थी, और राधा की आँखों में संतोष की चमक। दोनों ने मिलकर वो दुनिया गढ़नी शुरू कर दी थी जिसकी नींव कभी एक पेड़ की छांव में रखी गई थी।
एक दिन, राधा के पिता अचानक “छांव” की एक शाखा के उद्घाटन समारोह में पहुँचे। उन्हें नहीं बताया गया था कि यह कार्यक्रम राधा और मोहन की संस्था का है। जब उन्होंने मंच पर राधा को बच्चों के बीच देखा—साड़ी में, बिना आभूषणों के, मिट्टी से सने बच्चों को गले लगाते हुए—तो उनकी आँखें भर आईं।
और फिर उनकी नज़र पड़ी मोहन पर, जो अपने हाथों से बनाई हुई लकड़ी की कुर्सी पर बैठे हुए एक बच्चे को अक्षर सिखा रहा था। उन्हें वह मोहन याद आ गया जिसे उन्होंने कभी नीचा समझा था।
समारोह के अंत में, राधा के पिता मंच पर आए। सबको आश्चर्य हुआ। उन्होंने माइक पकड़ा और बोले:
“आज मैं गर्व से कहता हूँ कि मेरी बेटी ने जो राह चुनी, वो मुझसे कहीं ऊँची थी। और मोहन… तुमने साबित कर दिया कि आत्मा की अमीरी सबसे बड़ी पूंजी होती है। मैं चाहता हूँ कि अब ‘छांव’ के नाम के साथ एक और नाम जुड़ जाए—‘राधा-मोहन स्मृति शिक्षालय’।”
राधा की आँखों से आँसू बह निकले। मोहन ने उसके हाथ को थामा—ठीक उसी तरह जैसे बरसों पहले उस पेड़ की छांव में थामा था। अब न समाज की दीवार थी, न परिवार का विरोध।
अब "छांव" सिर्फ़ एक संस्था नहीं थी—यह एक आंदोलन बन चुका था। वहाँ हर बच्चा सिखाया जाता कि सपनों के लिए सबसे पहले अपने दिल को बड़ा करना पड़ता है।
और राधा-मोहन?
वे आज भी उसी पेड़ के नीचे हर महीने बच्चों के साथ बैठते हैं—कहानियाँ सुनाने, ज़िंदगी के सबक देने, और ये यकीन दिलाने कि सच्चा प्रेम समाज को भी बदल सकता है।